December 26, 2009

आज इक हर्फ़ को फिर ढूँढता फिरता है ख़याल

[हिंदी फ़िल्मी गीतकारों पर फैज़ की शायरी का प्रभाव]

फैज़ पर और उनकी शायरी पर कुछ लिखना किसी के लिए भी शायद आसान नहीं! मेरे लिए तो ये और भी मुश्किल है क्योंकि व्यवसाय के आधार पर देखा जाये तो मैं एक ‘फ़िल्मी’ लेखक हूँ ‘इल्मी’ लेखक नहीं! इस सच्चाई को ध्यान में रखते हुए भी इस विषय पर सोचना अच्छा लग रहा है कि फैज़ का फ़िल्मी गीतों पर क्या असर रहा!

मेरे विचार से ये एक सच है कि हर इंसान, हर शायर, हर लेखक अपने आप में अलग है, और एक सच्चाई ये भी है कि वो अलग नहीं है! जो सम्बन्ध, जो समाज, जो पारिवारिक दायरे एक कवि या लेखक के हैं लगभग वैसे ही दूसरी के भी हैं! लगभग एक से परिवेश में रहते हुए जो अनुभव, एहसास या दृष्टिकोण किसी एक कवि या लेखक का हो सकता है वो किसी दूसरी का भी हो सकता है! हाँ, उस अनुभव या एहसास को कविता में उतारने का ढंग अवश्य भिन्न होगा! मिर्ज़ा ग़ालिब का बहुत ही प्रसिद्ध शे’र है…”…कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और”…इस मिसरे पे ग़ौर करें तो हमे अन्दाज़ा होगा कि बयान की बात क्यों की है! इसी मिसरे में ऐसा भी हो सकता था…”कहते हैं कि ग़ालिब का है एहसास-ए-बयां और”…लेकिन शायद मिर्ज़ा ग़ालिब को ये पक्के तौर पे पता था कि दो लोगों का कभी कभार एहसास एक हो सकता है अंदाज़ एक नहीं हो सकता!

मैंने ये बात इसलिए कही ताकि अगर फैज़ साहिब का कोई मिसरा, शब्द या शे’र की ज़मीन, मैं या आप किसी गीत में ढूंढ लें तो गीतकार पे किसी भी तरह की इलज़ाम-तराशी या दोषारोपण न आरम्भ कर दें! मेरे विचार से फैज़ साहिब जैसी सोच की बुलंदी हर शायर-लेखक पाना चाहता है और अगर वो उस दिशा में कोई प्रयतन कर रहा है तो कोई बुरी बात नहीं! अब सवाल ये है कि फैज़ की सोच या शायरी की बुलंदी क्या थी! इस सवाल का जवाब एक्टर दिलीप कुमार साहिब ने एक टीवी इंटरव्यू में बख़ूबी दिया था, उन्होंने फैज़ की शायरी के बारे में कहा था कि, “हालाँकि मुताअला हमारा कम है लेकिन  फैज़ जैसी मायना आफरीनी, इतनी दिलसोज़ी, इतना रोमान, ज़ुबान का हुस्न और तर्ज़-ए-बयां जो इस्तेमाल में है और कहीं नहीं देखा”…बेशक दिलीप साहिब का शब्द शब्द सही है, उदाहरण के तौर पर ये देखिये:

जाबज़ा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म

ख़ाक में लिथडे हुए खून में नहलाये हुए

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे

अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे…

फैज़ साहिब की नज़्म ‘मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग’ बेशक सबने पढ़ी सुनी होगी! इस नज़्म में वो सब खूबियाँ हैं जिनका ज़िकर दिलीप साहिब ने किया है! सिर्फ इस नज़्म में ही नहीं उनकी हर नज़्म हर ग़ज़ल बेहतरीन शायरी का नमूना है!

इस नज़्म का ज़िक्र विशेष तौर पे मैंने इसलिए किया क्योंकि मैं जब भी ये नज़्म पढता या सुनता हूँ तो मुझे एक बहुत ही बेहतरीन गीतकार और शायर साहिर लुधियानवी की “किसी को उदास देख कर” नज़्म याद आ जाती है! साहिर साहिब की ये नज़्म मैं अपने  कालेज के दिनों में अक्सर कविता उच्चारण प्रतियोगताओं के तहत मंच पर बोला करता था! साहिर साहिब अपनी इस नज़्म के अंत तक आते आते कहते हैं:

ये शाहराहों पे रंगीन साड़ियों की झलक

ये झोंपड़ों में गरीबों की बे-कफन लाशें

ये गली गली में बिकते जवान चेहरे

हसीन आँखों में अफ्सुर्दगी सी छाई हुई

,.,.,.,.,.,.

ये ज़िल्लतें ये ग़ुलामी ये दौर-ए-मजबूरी

ये ग़म बहुत हैं मेरी जान ज़िन्दगी के लिए

उदास रहके मेरे दिल को और रंज न दे…

इन दोनों नज़्मों में ख्याल का मिल जाना मुझे बहुत थोडा सा समझ में आया लेकिन अंदाज़ का मिल जाना बिलकुल भी समझ में नहीं आया! मुझे ऐसा लगा जैसे साहिर ने फैज़ की हु-ब-हु नक़ल कर ली हो! कुछ परेशानी हुई साहिर साहिब पे थोड़ा गुस्सा भी आया ज़रा सा अफ़सोस भी हुआ! लेकिन मेरे ये सब एहसास उस दिन काफूर हो गए जब अचानक मेरी नज़र के आगे से फैज़ साहिब के करीबी दोस्त हमीद अख्तर का एक इंटरव्यू गुज़र गया! तब मुझे समझ में आया कि जब फैज़ साहिब की नज़्म छपी थी तो वो रिसाला किसी दोस्त ने साहिर को दिखाया था और कहा था कि साहिर तुम इस तरह की नज़्म कभी नहीं लिख सकते! मेरा अंदाज़ा ये है कि मन ही मन उन्होंने जवाब दिया होगा कि बोलके नहीं लिख कर दिखाऊंगा और उन्होंने हु-ब-हु फैज़ के अंदाज़ में और उसी एहसास में  नज़्म कह डाली!

मैं यहाँ फिर दोहराऊंगा कि फैज़ की शायरी को फ़िल्मी गीतकारों के संदर्भ में देखते हुए मैं किसी को छोटा या बड़ा लेखक साबित करने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ! ये सिर्फ एक तुलनात्मक अध्ययन जैसा है! फैज़ साहिब की इसी नज़्म में, जिसका कि मैंने ऊपर ज़िक्र किया, एक पंक्ति है…”तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है”…निसंदेह आपको “चिराग़” फिल्म का वो गीत याद आ गया होगा जो सुनील दत्त गाते हैं:

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है

ये उठे सुबह चले ये झुकें शाम ढले

मेरा जीना मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले…

मजरूह सुल्तानपूरी साहिब के लिखे इस गीत में फैज़ साहिब बकाइदगी से मौजूद हैं! फैज़ साहिब की इसी पंक्ति से प्रभावित होकर अनेक गीतकारों ने आँखों को विषय बनाकर गीत लिख डाले, जैसे शंकर जयकिशन के संगीत में “नैना” फिल्म का हमको तो जान से प्यारी हैं तुम्हारी आँखें, या आनंद बक्षी साहिब का लिखा जीवन से भरी तेरी आँखें मजबूर करें जीने के लिए या फिर कैफ़ी आज़मी साहिब का लिखा हर तरफ अब यही अफ़साने हैं हम तेरी आँखों के दीवाने हैं !  और उनकी इस एक पंक्ति का प्रभाव मेरी पीढ़ी के गीतकारों तक बरक़रार है! हालाँकि ऐसा नहीं है कि उनकी इस पंक्ति से पहले फ़िल्मी गीतों में आँखों का प्रयोग नहीं हुआ था, बेशक हुआ था लेकिन उस प्रयोग का अंदाज़ ज़रा सा भिन्न था, जैसे: नैना बरसे रिमझिम रिमझिम पिया तोरे मिलने की आस, नैनों में बदरा छाये, अखियों के झरोखों से मैंने देखा जो सांवरे या ऐसे ही कई और गीत, या फिर वो बहुत से गीत जो फैज़ की उक्त नज़्म से पहले लिखे गए, एक अलग तरह से आँखों की बात करते हैं! लेकिन धीरे धीरे फैज़ का अंदाज़ हावी हो गया फ़िल्मी गीतों पर!

फैज़ साहिब के अंदाज़ पे बात करूँ तो गीतकार जावेद अख्तर साहिब का फैज़ साहिब से जुड़ा एक किस्सा याद आता है उनके मुताबिक अपने आखिरी भारत दौरे पे जब फैज़ साहिब मुंबई आये थे तो शहर के गीतकारों ने मिलकर उनके लिए एक शाम मुनक्किद की थी जिसमें फिल्मों से जुडे लगभग सभी चर्चित गीतकारों ने भाग लिया था! उसी महफ़िल में हसन कमाल साहिब भी थे! उन्होंने उस निशिस्त के दौरान कहा कि फैज़ साहिब जितना अच्छा लिखते हैं अगर उतना ही अच्छा पढ़ते भी तो कमाल हो जाता! फैज़ साहिब ने अपने पढने के अंदाज़ पर ये टिपण्णी सुन कर तुरंत उत्तर दिया, “मियां सब काम हम ही करें?…कुछ आप भी कर लो…” इस जवाब के साथ गीतकारों की महफ़िल ठहाकों से गूँज गयी! फैज़ जितने संजीदा थे, जितने गंभीर थे उतने ही खुशमिजाज़ भी! लिखने के अलावा उनकी एक और बात हमारे एक बहुत प्रिय और आदर्नीये गीतकार आनंद बक्षी जी से मिलती थी, वो थी आर्मी की पृष्ठभूमि! कई बार मुझे इस बात की हैरानी होती है कि इतना अनुशासन भरा  और सख्तजान जीवन जीने के बाद भी किसी में कवि या शायर कैसे ज़िन्दा बच पाता है! पर कवि और शायर इन महान लेखकों में ज़िन्दा ही नहीं बल्कि बाकायदगी से ज़िन्दा रहा!

फैज़ साहिब की एक नज़्म ” ख़ुदा वो वक़्त न लाये” का ज़िक्र करना भी मैं ज़रूरी समझता हूँ, उनके संग्रह “नक्श-ए-फ़रियादी” में इस नज़्म के अलावा उनकी और भी कई नज्में हैं! इस नज़्म का एक बंद देखिये:

ग़रूर-ए-हुस्न सरापा नयाज़ हो तेरा

तबील रातों में तू भी क़रार को तरसे

तेरी निगाह किसी ग़म ग़ुसार को तरसे

खिज़ांरसीदा तमन्ना बहार को तरसे…

अब इसके साथ ही मैं “आये दिन बहार के” फिल्म का आनंद बख्शी साहिब का ये गीत भी उद्धरित कर रहा हूँ:

मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे

मुझे ग़म देने वाले तू ख़ुशी को तरसे

.,.,,.,..,,.,.,,..,.,

तू फूल बने पतझड़ का तुझपे बहार न आये कभी…

बख्शी साहिब के इस गीत की ज़मीन, अंदाज़ और बयान काफी हद तक उक्त नज़्म के उद्धरित बंद से प्रभावित है! और ये गीत आगे चल कर कहता है…’तू फूल बने पतझड़ का तुझपे बहार न आये कभी’…यानि लगभग वही बात कि  ‘खिज़ांरसीदा तमन्ना बहार को तरसे’! हिंदी फ़िल्मी गीतों पर फैज़ की ज़मीन और ख़याल का असर इतना गहरा है कि चाहते न चाहते वो गीतकारों को अपनी और खींच ही लेता है! साहिर साहिब का लिखा ‘शगुन’ फिल्म का एक गीत है:

तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो…

एक और प्रसिद्ध गीतकार हैं राजा मेंहदी अली खां जिन्होंने सत्तर के दशक में बहुत से गीत दिए फिल्मों में! उनके गीतों से सजी फिल्म ‘आपकी परछाईँयां’ बहुत चर्चित और सफल फिल्म रही जिसमें एक गीत था:

अगर मुझसे मोहब्बत है मुझे सब अपने ग़म दे दो…

यकीनन पाठकों ने इस गीत को भी सुना होगा! और ‘नक्श-ए-फ़रियादी’ में फैज़ साहिब की एक नज़्म है जिसका शीर्षक है ‘हसीना-ए-ख़याल से’, ये नज़्म इस तरह शुरू होती है:

मुझे दे दो

रसीले होंठ, मासूमाना पेशानी, हंसीं आँखें…

यहाँ उक्त दोनों गीतों में गीतकारों ने फैज़ की ज़मीन के ठीक बरक्स ज़मीन से गीत को जन्म दिया है! गीतकारों ने एक सिरा फैज़ से उधार लिया और अपने तरीके से उसको फैज़ से बिलकुल विरोधी ज़मीन पर बढ़ा दिया! तो फैज़ का असर फ़िल्मी गीतों पर कभी सीधे तौर पे और कभी ज़रा घुमाव के साथ अक्सर और पर्याप्त देखा गया है! हिंदी फिल्म जगत की हमेशा याद राखी जाने वाली फिल्म ‘मदर इंडिया’ में शकील बदायूनी साहिब ने लिखा था:

दुःख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे

रंग जीवन में नया लायो रे…

और फैज़ साहिब कहते हैं:

आज की रात साज़-ए-दर्द न छेड़

दुःख से भरपूर दिन तमाम हुए…

आज के गीतकारों में जावेद अख्तर और गुलज़ार साहिब के अलावा कितने गीतकार फैज़ साहिब को सही तौर से जानते हैं ये कहना मुश्किल है क्योंकि हम समकालीन गीतकार मिल बैठ कर कभी ये चर्चा नहीं करते कि हम क्या पढ़ लिख रहे या, पढ़ लिख रहे भी हैं या नहीं, बात चिंताजनक और अफ़सोस की है लेकिन सच है! अगर मैं अपनी थोड़ी बहुत ज़िम्मेदारी लूं तो मैं ये कह सकता हूँ कि मैंने थोड़ा बहुत उनको ज़रूर पढ़ने और जानने, समझने की कोशिश की है अपनी अदना सी समझ के अनुसार, वो भी शायद इसलिए क्योंकि मेरा साहित्य से बहुत गहरा जुड़ाव और प्रेम है, विशेष तौर पे काव्य से, चाहे वो भारत की किसी भाषा का हो या दुनिया की! मेरे अपने गीतों में न चाहते हुए फैज़ साहिब अपनी रंगत छोड़ जाते हैं, उदहारण के तौर पे ‘वन्स अपोन ए टाइम इन मुंबई’ फिल्म का मेरा एक गीत काफी प्रसिद्ध हुआ है पिछले दिनों, जिसके बोल हैं:

तुम जो आये ज़िन्दगी में बात बन गयी

इश्क़ मज़हब इश्क़ मेरी ज़ात बन गयी

ये फिल्म में दोगाने के तौर पे भी आया है और सिर्फ राहत अली खां की आवाज़ में भी है! दोनों ही गीतों में अंतरे अलग अलग हैं, राहत साहिब के गीत का अंतरा कुछ यूँ है:

ऐसा मैं सौदाई हुआ धड़कने भी अपनी लगती हैं तेरी आहटें…

विश्वास कीजिये मैंने जान बूझ कर फैज़ साहिब का प्रभाव लेने की कोशिश नहीं की थी, लेकिन जब मुझे ये लेख लिखना था तो फैज़ साहिब को दोबारा पढ़ा और उनका ये शे’र मेरी नज़र के सामने से गुज़र गया, वो ये शे’र था:

फ़रेबे आरज़ू की सहल-अंगारी नहीं जाती

हम अपने दिल की धड़कन को तेरी आवाज़े-पा समझे…

मैंने ख़ुद को मन ही मन कहा इरशाद कामिल दूसरों पे फैज़ साहिब का प्रभाव ढूँढ रहे हो पहले ख़ुद पे देख लो! गुलज़ार साहिब के लेखन पर मिर्ज़ा ग़ालिब का असर साफ़ है लेकिन फैज़ की कलम का लोहा वो भी मानते हैं! वो मानते हैं कि फैज़ साहिब पूरी तहरीक के रहनुमा थे, फैज़ साहिब को समर्पित उनकी एक नज़्म है:

चाँद लाहोर की गलियों से गुज़र के एक शब्

जेल कि ऊंची फ़सीलें चढ़ के

यूँ कमांडो की तरह कूद गया था सैल में

कोई आहट न हुई

पहरेदारों को पता ही न चला

फैज़ से मिलने गया था ये सुना है

फैज़ से कहने

कोई नज़्म कहो

वक़्त की नब्ज़ रुकी है

कुछ कहो…वक़्त की नब्ज़ चले…!

फैज़ की शायरी के प्रभाव में आये कुछ फ़िल्मी गीतों और गीतकारों की चर्चा ऊपर की और मेरा विश्वास है कि ये चर्चा और बहुत लम्बी चल सकती है जो कुल मिलाकर यही साबित करेगी कि हिंदी फ़िल्मी गीतकार फैज़ की छाया में नहीं बल्कि धूप में हैं और उसकी शायरी से हमेशा थोड़ी बहुत गर्माहट लेते रहते हैं! किसी गीतकार के किसी गीत पर किसी शायर के किसी ख़याल का या ज़मीन का असर होना मुझे थोड़ा बुरा तो लगता है लेकिन तकलीफ नहीं देता, वो इसलिए कि मैं ये सोच कर खुश हो जाता हूँ… कम से कम आज का गीतकार किसी शायर को पढ़ तो रहा है! वर्ना मेरी राय में आज के ज़्यादातर गीतकारों का नाता सिर्फ पुराने गीतों से है या वो गुलज़ार साहिब या जावेद अख्तर साहिब को अपना आदर्श मान कर बैठे हुए हैं, हालाँकि ऐसा करने में कतई कोई बुरी बात नहीं है! पर मुझे लगता है मेरे ऐसे साथी दोनों गीतकारों की गीत-नवीसी से ज़्यादा उनकी प्रसिद्धी और रोब-दाब से प्रभावित हैं, हालाँकि ऐसे प्रभावित होने में भी कोई बुराई नहीं है लेकिन ये शायद हिंदी फिल्म जगत के हित की बात नहीं है! ख़ैर, जो है अच्छा है और आगे जो होगा वो भी अच्छा ही होगा, उम्मीद पे दुनिया कायम है!

फ़िल्मी गीतों पे अगर नहीं आया तो फैज़ साहिब का इन्क़लाबी रंग नहीं आया! इसका कारण मैं ये मानता हूँ कि हमारे यहाँ देश प्रेम की फिल्में लगभग ना के बराबर बनती हैं, अगर बनें तो शायद वहां भी फैज़ अपना जलवा दिखा दे, क्योंकि वो ऐसा शायर है:

जिसने तहरीक बदलने का ख़वाब देखा था

सूर्ख़ फूलों में भी इंक़लाब देखा था…

इस बरस उस लासानी शायर के जन्म को सौ साल हो गए और वो हमारे दिल-ओ-ज़ेहन में बीते कल की तरह जिंदा है, मुझे यकीन है कि वो आने वाले हज़ार बरस तक भी इसी तरह ज़िंदा रहेगा क्योंकि शायर कभी ना बूढ़ा होता है, ना मरता है!

–==–

Published in “KURJAN-Sandesh”, March 2011

24 responses to “आज इक हर्फ़ को फिर ढूँढता फिरता है ख़याल”

  1. Rutuja says:

    Insightful…Informative…Interesting (importantly its very gr8 of U that U have made it very interesting even for me – a layperson from the laity)
    &
    Heartfelt …Humble…Honest…
    Simply gr8888888888 🙂

  2. Irshad Kamil says:

    Thank u very much Rutuja…I know its really taxing to read such a big write up at pc. Thanks a lotttt.

  3. bulbul says:

    a very interesting n informative write-up.pls ,if possible give some information abt how we can get hold of this magazine.great work from you Irshad.

  4. tasveer says:

    kuch shabd mushkil lage ,par padhne mein bahut acchi lagi apni hindi,,,,,,usey aur kareeb se jaanene ki jigyaasa bhi hui….aur Faiz sahab ko bhi.

  5. shelly says:

    great work! im in complete awe to see this dimension of yours n that too so well-etched n honest to the core. Today,i feel proud being an avid n dedicated listener of the songs which are written by someone who has such in-depth knowledge of our literature. you’ve made me a very proud person today!THANKS for doing this.

  6. Irshad Kamil says:

    Shelly pleasure is all mine. thanks a lot.

  7. Irshad Kamil says:

    Tasveer behad shukriya…bhasha seekhne ki cheez hai. Mujhe pata hai aap har mushkil ko aasan bana lengi.

  8. Irshad Kamil says:

    Bulbul Thanks soon i will gv u the Email of that magazine.

  9. यह लेख ना केवल काफी जानकारी देता है, बल्कि अच्छी रिसर्च के नुक्ते भी लिए है…फैज़ साहिब के सौ साला कार्यक्रमों कि श्रृंखला में इसका यहाँ , फ़िल्मी दायरों में, छपना महत्वपूर्ण है…इस विषय पर आगे और सोचा जा सकता है, काम किया जा सकता है…

    क्या ग़ालिब के बाद फैज़ साहिब के अलावा कोई और ऐसा कवि हुआ जिसने लोकमानस में ऐसी गहरी पैठ बनाई…?

    जरूर एक दिन यह दुनिया आज से कहीं बेहतर दुनिया होगी…फैज़ साहिब जैसे शायरों के लफ़्ज़ों के बदौलत भी…..!

  10. Rutuja says:

    Irshad, Thanks a ton 🙂

    It’s my pleasure, always.

  11. aparna says:

    I like your lyrics and your blog… Now days people dont expected such deep thought and good poetry from bollywood filmwalas. But you make hindi song more meaningful and such a melodious words.
    Thanks,

  12. Irshad Kamil says:

    Aparna Thanks a lot, keep visiting and commenting.

  13. Nadeem Bukhari says:

    Bahut Shandaar.

    Kiya bhala Kahoon Sahib ?

    Apke iye Ek Shear:
    Jo Kuch Mile Usey Kha Liya Karo Fraz,
    Rozana Iftari Mein Pakode Ache Nahin Hote.

  14. shakti barthwal says:

    Sir, aapne jo likha vo kaafi accha laga… Mujhe bhi kahin ek pada hua sheir yaad aaya, kisne likha yeh toh Yaad nahin …par alfaz kuch iss tarah ke hain…

    sirf andaze bayan he har baat badal deita hai
    warna duniya mein koi baat, kabhi nayi baat nahin hoti….

    sir aapke anusaan , sab geetkaar faiz sahab ki chaya mein nahin dhoop mein hain aur dhoop ke tukdon ko apne geeton mein piro kar garmahat ka anand le rahe hain…Shabdon ka hamesha ki tarah accha prayog, main aapke jaisa toh nahin likh sakta par aapka likha hua pad toh sakta hun aur jo accha lagey aapki taarif bhi kar sakta hun….Aaapne accha likha isiliye mujhe accha laga, sir aise he accha achha likhte rahiye aur hamein accha accha lagate rahiye…all the best…

  15. Irshad Kamil says:

    Shakti bahut bahut shukriya.

  16. pratibha says:

    Bahut hi kamaal ka lekh hai Irshad Sahab! Love Jaisa Kuch ke gane sunne ke baad aapke blog tak aa pahunchi. Ye to niyamat hui. Shukriya!

  17. Irshad Kamil says:

    Pratibha ji aapka behad ehsaanmand hun…iss webpage pe aate rahiye aur meri hausla afzai ke liye comment karte rahiye.

  18. Parvez akhtar says:

    Kaya kamaal likha hai irshad shaib is k liye meri taraf se mubarkbaad qubool kijiye aur isi tarah ki jankari dete rahiye Allah aap ko shifaye kamil ata farmaye

  19. Irshad Kamil says:

    Parvez Bhai Shukriya bahut bahut.

  20. virendra says:

    sir, AADAB
    Isme Koi shak nahi ki aap kamal ke writer hai aur nayab hai, isiliye aap se yeh kehna ki bahut accha likhte hai kuch aisa hoga jaise ki main gulab se kahun ki bahut acchi mahak dete ho.
    vaise main chota sa writer hoon jo ki in dino apna aashiyan a niv rakhne ki koshish kar raha hai.
    yeh dekhkar accha laga ki aapne jo Faiz ki shayari aur filmi geeto ke connection ko aam insaan se rubru karaya.
    vaise maine yeh bhi note kiya hai ki shayri se geet to banate hai par yanha to geeto se bhi geet ban rahe hai
    jaise aapne suna hoga Popular song : “JANE KYU LOG MOHABBAT KIYA KARTE HAI, DIL KE BADLE DARDE DIL LIYA KARTE HAI”

    Phir Dil Chata Hi ka “Jane Kyun log pyar karte hai. Jane kyu wo kisi pe marte hai”

    Khair yeh sab chalta rahta hai,

    Vaise 1 baar kahna chahunga ki GUSTAKHI MAAF jo itna kuch comments main likha agar kuch galti ho to maaf kijiyega,

    Khuda Hafiz aur khuda se yahi chahunga ki aap yun hi hamesha sitare ki tarah falak main chamkate rahe, aur desh ke dusre writer jo hard work kar rahe hai aur jinhone shayari ko ibadat ki tarah liya hai zindgi main unhe safalta mile.

    your well wisher VIRENDRA SINGH
    (Lyricist)

  21. vaseem jimmy says:

    Irshad sahab itna kuch batane ke liye shukriya, Fiaz sahab ke baare me pad kar accha laga, thanks

  22. Qadri Ayaz Ahemad says:

    Hello
    sir pata nahi jab bhi aap ki shayri padhata hoo, to yuhi lagata hai ke aap mere ulajh huve sawaalo ko jawab dete ho. sir aap ke harf barbad nahi jaate bahut se logo ke kaam aate hai. sir mene kuchh sher like hai, agar aap sun lege to badi maherbani hogi aur muje achha lage ga,

    आधी रात को तारा टूटा आँखों से, अँधेरे में गूम हो गया,
    सुबहको जो दिल के आँगन में फूल खिला , ना उम्मीदे से शामको मुर्जा गया.

    ज़िंदगी की शाखों पर फ़ल ऊगा था दुवाओ से , जल्दबाज़ी की हवा से टूट गया.
    उम्मीद के सारे पत्ते पतझर के इस मौसम में , पलकों से बेबसी से टूट गये.

    Ho sake to bataye ga ke kesa laga aap ko mera toota foota kalam.
    Thanks

  23. श्रद्धा says:

    इरशाद सर ,
    शब्दों से प्यार और रेडियो सुनने की शौकीन होने के कारण मुझे पुराने गानों के बोल बहुत याद रहते हैं। फैज साहब के लेखन का फिल्म के गीतों पर इतना असर रहा है इसकी जानकारी रोचक लगी। फैज साहब हमारे लिए कठिन हैं पर फिल्मी गीत तो आसानी से समझ आ जाते हैं।

    आप यूं ही हम सब से साझा करते रहें इस तरह की दिलचस्प बातें। शुक्रिया

  24. Irshad Kamil says:

    श्रद्धा, शब्दों से नाता बरकरार रखें।

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