December 26, 2009

मुसाफ़िर  रात  भर  का  ही  रहा  मेरे  लिये तू
मैं ऐसा शहर था जिसमें कि तेरा घर नहीं था ।




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ये ख़ुमारी है कोई या नज़र का धोखा है,
आप आप दिखते हैं ये मुझे हुआ क्या है.




मैंने ख़ुद को मन ही मन कहा इरशाद कामिल दूसरों पे फैज़ साहिब का प्रभाव ढूँढ रहे हो पहले ख़ुद पे देख लो! गुलज़ार साहिब के लेखन पर मिर्ज़ा ग़ालिब का असर साफ़ है लेकिन फैज़ की कलम का लोहा वो भी मानते हैं! वो मानते हैं कि फैज़ साहिब पूरी तहरीक के रहनुमा थे, फैज़ साहिब को समर्पित उनकी एक नज़्म है:

चाँद लाहोर की गलियों से गुज़र के एक शब्

जेल कि ऊंची फ़सीलें चढ़ के

यूँ कमांडो की तरह कूद गया था सैल में 

कोई आहट न हुई

पहरेदारों को पता ही न चला

फैज़ से मिलने गया था ये सुना है

फैज़ से कहने

कोई नज़्म कहो

वक़्त की नब्ज़ रुकी है

कुछ कहो…वक़्त की नब्ज़ चले…!

फैज़ की शायरी के प्रभाव में आये कुछ फ़िल्मी गीतों और गीतकारों की चर्चा ऊपर की और मेरा विश्वास है कि ये चर्चा और बहुत लम्बी चल सकती है जो कुल मिलाकर यही साबित करेगी कि हिंदी फ़िल्मी गीतकार फैज़ की छाया में नहीं बल्कि धूप में हैं और उसकी शायरी से हमेशा थोड़ी बहुत गर्माहट लेते रहे हैं ! किसी गीतकार के किसी गीत पर किसी शायर के किसी ख़्याल का या ज़मीन का असर होना मुझे थोड़ा बुरा तो लगता है लेकिन तकलीफ नहीं देता, वो इसलिए कि मैं ये सोच कर खुश हो जाता हूँ… कम से कम आज का गीतकार किसी शायर को पढ़ तो रहा है!  ख़ैर, जो है अच्छा है और आगे जो होगा वो भी अच्छा ही होगा, उम्मीद पे दुनिया कायम है!

फ़िल्मी गीतों पे अगर नहीं आया तो फैज़ साहिब का इन्क़लाबी रंग नहीं आया! इसका कारण मैं ये मानता हूँ कि हमारे यहाँ देश प्रेम की फिल्में लगभग ना के बराबर बनती हैं, अगर बनें तो शायद वहां भी फैज़ अपना जलवा दिखा दे, क्योंकि वो ऐसा शायर है:

जिसने तहरीक बदलने का ख़वाब देखा था

सूर्ख़ फूलों में भी इंक़लाब देखा था…

#OnFaiz




फैज़ का असर फ़िल्मी गीतों पर कभी सीधे तौर पे और कभी ज़रा घुमाव के साथ अक्सर और पर्याप्त देखा गया है! हिंदी फिल्म जगत की हमेशा याद रखी जाने वाली फिल्म ‘मदर इंडिया’ में शकील बदायूनी साहिब ने लिखा था:

दुःख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे

रंग जीवन में नया लायो रे…

और फैज़ साहिब कहते हैं:

आज की रात साज़-ए-दर्द न छेड़

दुःख से भरपूर दिन तमाम हुए…

आज के गीतकारों में जावेद अख्तर और गुलज़ार साहिब के अलावा कितने गीतकार फैज़ साहिब को सही तौर से जानते हैं ये कहना मुश्किल है क्योंकि हम समकालीन गीतकार मिल बैठ कर कभी ये चर्चा नहीं करते कि हम क्या पढ़ लिख रहे या, पढ़ लिख रहे भी हैं या नहीं, बात चिंताजनक और अफ़सोस की है लेकिन सच है! अगर मैं अपनी थोड़ी बहुत ज़िम्मेदारी लूं तो मैं ये कह सकता हूँ कि मैंने थोड़ा बहुत उनको ज़रूर पढ़ने और जानने, समझने की कोशिश की है अपनी अदना सी समझ के अनुसार, वो भी शायद इसलिए क्योंकि मेरा साहित्य से जुड़ाव और प्रेम है, विशेष तौर पे काव्य से, चाहे वो भारत की किसी भाषा का हो या दुनिया की! मेरे अपने गीतों में न चाहते हुए फैज़ साहिब अपनी रंगत छोड़ जाते हैं, उदहारण के तौर पे ‘वन्स अपोन ए टाइम इन मुंबई’ फिल्म का मेरा एक गीत काफी प्रसिद्ध हुआ, जिसके बोल हैं:

तुम जो आये ज़िन्दगी में बात बन गयी

इश्क़ मज़हब इश्क़ मेरी ज़ात बन गयी 

ये फिल्म में दोगाने के तौर पे भी आया है और सिर्फ राहत अली खां की आवाज़ में भी है! दोनों ही गीतों में अंतरे अलग अलग हैं, राहत साहिब के गीत का अंतरा कुछ यूँ है:

ऐसा मैं सौदाई हुआ धड़कने भी अपनी लगती हैं तेरी आहटें…

विश्वास कीजिये मैंने जान बूझ कर फैज़ साहिब का प्रभाव लेने की कोशिश नहीं की थी, लेकिन जब मुझे ये लेख लिखना था तो फैज़ साहिब को दोबारा पढ़ा और उनका ये शे’र मेरी नज़र के सामने से गुज़र गया, वो ये शे’र था:

फ़रेबे आरज़ू की सहल-अंगारी नहीं जाती

हम अपने दिल की धड़कन को तेरी आवाज़े-पा समझे…

#OnFaiz




फैज़ साहिब की एक नज़्म ” ख़ुदा वो वक़्त न लाये” का ज़िक्र करना भी मैं ज़रूरी समझता हूँ, उनके संग्रह “नक्श-ए-फ़रियादी” में इस नज़्म के अलावा उनकी और भी कई नज्में हैं! इस नज़्म का एक बंद देखिये:

ग़रूर-ए-हुस्न सरापा नयाज़ हो तेरा

तबील रातों में तू भी क़रार को तरसे

तेरी निगाह किसी ग़म ग़ुसार को तरसे

ख़िज़ाँरसीदा तमन्ना बहार को तरसे…

अब इसके साथ ही मैं “आये दिन बहार के” फिल्म का आनंद बख्शी साहिब का ये गीत भी उद्धरित कर रहा हूँ:

मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे

मुझे ग़म देने वाले तू ख़ुशी को तरसे

तू फूल बने पतझड़ का तुझपे बहार न आये कभी…

बख्शी साहिब के इस गीत की ज़मीन, अंदाज़ और बयान काफी हद तक उक्त नज़्म के उद्धरित बंद से प्रभावित हैं ! और ये गीत आगे चल कर कहता है…’तू फूल बने पतझड़ का तुझपे बहार न आये कभी’…यानि लगभग वही बात कि ‘ख़िज़ाँरसीदा तमन्ना बहार को तरसे’! हिंदी फ़िल्मी गीतों पर फैज़ की ज़मीन और ख़्याल का असर इतना गहरा है कि चाहते न चाहते वो गीतकारों को अपनी और खींच ही लेता है! साहिर साहिब का लिखा ‘शगुन’ फिल्म का एक गीत है:

तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो…

एक और प्रसिद्ध गीतकार हैं राजा मेंहदी अली खां जिन्होंने सत्तर के दशक में बहुत से गीत दिए फिल्मों में! उनके गीतों से सजी फिल्म ‘आपकी परछाईँयां’ बहुत चर्चित और सफल फिल्म रही जिसमें एक गीत था:

अगर मुझसे मोहब्बत है मुझे सब अपने ग़म दे दो…

यकीनन पाठकों ने इस गीत को भी सुना होगा! और ‘नक्श-ए-फ़रियादी’ में फैज़ साहिब की एक नज़्म है जिसका शीर्षक है ‘हसीना-ए-ख़्याल से’, ये नज़्म इस तरह शुरू होती है:

मुझे दे दो

रसीले होंठ, मासूमाना पेशानी, हंसीं आँखें…

यहाँ उक्त दोनों गीतों में गीतकारों ने फैज़ की ज़मीन के ठीक बरक्स ज़मीन से गीत को जन्म दिया है! गीतकारों ने एक सिरा फैज़ से उधार लिया और अपने तरीके से उसको फैज़ से बिलकुल विरोधी ज़मीन पर बढ़ा दिया!#OnFaiz




फैज़ साहिब के अंदाज़ पे बात करूँ तो गीतकार जावेद अख्तर साहिब का फैज़ साहिब से जुड़ा एक किस्सा याद आता है उनके मुताबिक अपने आखिरी भारत दौरे पे जब फैज़ साहिब मुंबई आये थे तो शहर के गीतकारों ने मिलकर उनके लिए एक शाम मुनक्किद की थी जिसमें फिल्मों से जुडे लगभग सभी चर्चित गीतकारों ने भाग लिया था! उसी महफ़िल में हसन कमाल साहिब भी थे! उन्होंने उस निशिस्त के दौरान कहा कि फैज़ साहिब जितना अच्छा लिखते हैं अगर उतना ही अच्छा पढ़ते भी तो कमाल हो जाता! फैज़ साहिब ने अपने पढने के अंदाज़ पर ये टिपण्णी सुन कर तुरंत उत्तर दिया, “मियां सब काम हम ही करें?…कुछ आप भी कर लो…” इस जवाब के साथ गीतकारों की महफ़िल ठहाकों से गूँज गयी! फैज़ जितने संजीदा थे, जितने गंभीर थे उतने ही खुशमिजाज़ भी! लिखने के अलावा उनकी एक और बात हमारे एक बहुत प्रिय और आदर्नीये गीतकार आनंद बक्षी जी से मिलती थी, वो थी आर्मी की पृष्ठभूमि! कई बार मुझे इस बात की हैरानी होती है कि इतना अनुशासन भरा  और सख्तजान जीवन जीने के बाद भी किसी में कवि या शायर कैसे ज़िन्दा बच पाता है! पर कवि और शायर इन महान लेखकों में ज़िन्दा ही नहीं बल्कि बाकायदगी से ज़िन्दा रहा! #OnFaiz




इन दोनों नज़्मों में ख्याल का मिल जाना मुझे बहुत थोडा सा समझ में आया लेकिन अंदाज़ का मिल जाना बिलकुल भी समझ में नहीं आया! मुझे ऐसा लगा जैसे साहिर ने फैज़ की हु-ब-हु नक़ल कर ली हो! कुछ परेशानी हुई साहिर साहिब पे थोड़ा गुस्सा भी आया ज़रा सा अफ़सोस भी हुआ! लेकिन मेरे ये सब एहसास उस दिन काफूर हो गए जब अचानक मेरी नज़र के आगे से फैज़ साहिब के करीबी दोस्त हमीद अख्तर का एक इंटरव्यू गुज़र गया! तब मुझे समझ में आया कि जब फैज़ साहिब की नज़्म छपी थी तो वो रिसाला किसी दोस्त ने साहिर को दिखाया था और कहा था कि साहिर तुम इस तरह की नज़्म कभी नहीं लिख सकते! मेरा अंदाज़ा ये है कि मन ही मन उन्होंने जवाब दिया होगा कि बोलके नहीं लिख कर दिखाऊंगा और उन्होंने हु-ब-हु फैज़ के अंदाज़ में और उसी एहसास में  नज़्म कह डाली!

मैं यहाँ फिर दोहराऊंगा कि फैज़ की शायरी को फ़िल्मी गीतकारों के संदर्भ में देखते हुए मैं किसी को छोटा या बड़ा लेखक साबित करने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ! ये सिर्फ एक तुलनात्मक अध्ययन जैसा है! फैज़ साहिब की इसी नज़्म में, जिसका कि मैंने ऊपर ज़िक्र किया, एक पंक्ति है…”तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है”…निसंदेह आपको “चिराग़” फिल्म का वो गीत याद आ गया होगा जो सुनील दत्त गाते हैं:

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है

ये उठे सुबह चले ये झुकें शाम ढले

मेरा जीना मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले…

मजरूह सुल्तानपूरी साहिब के लिखे इस गीत में फैज़ साहिब बकाइदगी से मौजूद हैं! फैज़ साहिब की इसी पंक्ति से प्रभावित होकर अनेक गीतकारों ने आँखों को विषय बनाकर गीत लिख डाले, जैसे शंकर जयकिशन के संगीत में “नैना” फिल्म का हमको तो जान से प्यारी हैं तुम्हारी आँखें, या आनंद बक्षी साहिब का लिखा जीवन से भरी तेरी आँखें मजबूर करें जीने के लिए या फिर कैफ़ी आज़मी साहिब का लिखा हर तरफ अब यही अफ़साने हैं हम तेरी आँखों के दीवाने हैं !  और उनकी इस एक पंक्ति का प्रभाव मेरी पीढ़ी के गीतकारों तक बरक़रार है! हालाँकि ऐसा नहीं है कि उनकी इस पंक्ति से पहले फ़िल्मी गीतों में आँखों का प्रयोग नहीं हुआ था, बेशक हुआ था लेकिन उस प्रयोग का अंदाज़ ज़रा सा भिन्न था, जैसे: नैना बरसे रिमझिम रिमझिम पिया तोरे मिलने की आस, नैनों में बदरा छाये, अखियों के झरोखों से मैंने देखा जो सांवरे या ऐसे ही कई और गीत, या फिर वो बहुत से गीत जो फैज़ की उक्त नज़्म से पहले लिखे गए, एक अलग तरह से आँखों की बात करते हैं! लेकिन धीरे धीरे फैज़ का अंदाज़ हावी हो गया फ़िल्मी गीतों पर! #OnFaiz




जाबज़ा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म

ख़ाक में लिथडे हुए खून में नहलाये हुए

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे 

अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे…

फैज़ साहिब की नज़्म ‘मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग’ बेशक सबने पढ़ी सुनी होगी! इस नज़्म में वो सब खूबियाँ हैं जिनका ज़िकर दिलीप साहिब ने किया है! सिर्फ इस नज़्म में ही नहीं उनकी हर नज़्म हर ग़ज़ल बेहतरीन शायरी का नमूना है!

इस नज़्म का ज़िक्र विशेष तौर पे मैंने इसलिए किया क्योंकि मैं जब भी ये नज़्म पढता या सुनता हूँ तो मुझे एक बहुत ही बेहतरीन गीतकार और शायर साहिर लुधियानवी की “किसी को उदास देख कर” नज़्म याद आ जाती है! साहिर साहिब की ये नज़्म मैं अपने  कालेज के दिनों में अक्सर कविता उच्चारण प्रतियोगताओं के तहत मंच पर बोला करता था! साहिर साहिब अपनी इस नज़्म के अंत तक आते आते कहते हैं:

ये शाहराहों पे रंगीन साड़ियों की झलक

ये झोंपड़ों में गरीबों की बे-कफन लाशें

ये गली गली में बिकते जवान चेहरे 

हसीन आँखों में अफ्सुर्दगी सी छाई हुई

ये ज़िल्लतें ये ग़ुलामी ये दौर-ए-मजबूरी

ये ग़म बहुत हैं मेरी जान ज़िन्दगी के लिए

उदास रहके मेरे दिल को और रंज न दे…

#OnFaiz




दो लोगों का कभी कभार एहसास एक हो सकता है अंदाज़ एक नहीं हो सकता!

मैंने ये बात इसलिए कही ताकि अगर फैज़ साहिब का कोई मिसरा, शब्द या शे’र की ज़मीन, मैं या आप किसी गीत में ढूंढ लें तो गीतकार पे किसी भी तरह की इलज़ाम-तराशी या दोषारोपण न आरम्भ कर दें! मेरे विचार से फैज़ साहिब जैसी सोच की बुलंदी हर शायर-लेखक पाना चाहता है, अब सवाल ये है कि फैज़ की सोच या शायरी की बुलंदी क्या थी! इस सवाल का जवाब एक्टर दिलीप कुमार साहिब ने एक टीवी इंटरव्यू में बख़ूबी दिया था, उन्होंने फैज़ की शायरी के बारे में कहा था कि, “हालाँकि मुताअला हमारा कम है लेकिन  फैज़ जैसी मायना आफरीनी, इतनी दिलसोज़ी, इतना रोमान, ज़ुबान का हुस्न और तर्ज़-ए-बयां जो इस्तेमाल में है और कहीं नहीं देखा”…बेशक दिलीप साहिब का शब्द शब्द सही है, उदाहरण के तौर पर ये देखिये:

जाबज़ा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म

ख़ाक में लिथडे हुए खून में नहलाये हुए

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे 

अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे…

फैज़ साहिब की नज़्म ‘मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग’ बेशक सबने पढ़ी सुनी होगी! इस नज़्म में वो सब खूबियाँ हैं जिनका ज़िकर दिलीप साहिब ने किया है! सिर्फ इस नज़्म में ही नहीं उनकी हर नज़्म हर ग़ज़ल बेहतरीन शायरी का नमूना है! #OnFaiz(Irshad Kamil)




Two Masters & A Fanboy




[हिंदी फ़िल्मी गीतकारों पर फैज़ की शायरी का प्रभाव]

फैज़ पर और उनकी शायरी पर कुछ लिखना किसी के लिए भी शायद आसान नहीं! मेरे लिए तो ये और भी मुश्किल है क्योंकि व्यवसाय के आधार पर देखा जाये तो मैं एक ‘फ़िल्मी’ लेखक हूँ ‘इल्मी’ लेखक नहीं! इस सच्चाई को ध्यान में रखते हुए भी इस विषय पर सोचना अच्छा लग रहा है कि फैज़ का फ़िल्मी गीतों पर क्या असर रहा!

मेरे विचार से ये एक सच है कि हर इंसान, हर शायर, हर लेखक अपने आप में अलग है, और एक सच्चाई ये भी है कि वो अलग नहीं है! जो सम्बन्ध, जो समाज, जो पारिवारिक दायरे एक कवि या लेखक के हैं लगभग वैसे ही दूसरी के भी हैं! लगभग एक से परिवेश में रहते हुए जो अनुभव, एहसास या दृष्टिकोण किसी एक कवि या लेखक का हो सकता है वो किसी दूसरी का भी हो सकता है! हाँ, उस अनुभव या एहसास को कविता में उतारने का ढंग अवश्य भिन्न होगा! मिर्ज़ा ग़ालिब का बहुत ही प्रसिद्ध शे’र है…”…कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और”…इस मिसरे पे ग़ौर करें तो हमे अन्दाज़ा होगा कि बयान की बात क्यों की है! इसी मिसरे में ऐसा भी हो सकता था…”कहते हैं कि ग़ालिब का है एहसास-ए-बयां और”…लेकिन शायद मिर्ज़ा ग़ालिब को ये पक्के तौर पे पता था कि दो लोगों का कभी कभार एहसास एक हो सकता है अंदाज़ एक नहीं हो सकता! #OnFaiz(IrshadKamil)




अब सभी मान लो बात ये प्यार से
मानते हो भला क्यों सदा हार से
जो शिखर के लिए है बना हिन्द है
वो मेरी जान था वो मेरी जिन्द है…

Ab sabhi maan lo baat ye pyar se

Maante ho bhala kyon sada haar se

jo shikhar ke liye hai bana HIND hai

Vo meri jaan tha vo meri jind hai…




Wi-Fi is the new Legal Drug.  I know, Do you know this? …We are enjoying it at the cost of our health. I am writing ‘This’ and you are reading ‘This’ through Wi-Fi…WOW…Happy Journey to Us.




आज और आज से पहले रूमी ने इस धरती को अपने रहस्यवादी प्रेम से कितना प्रभावित किया इस बात का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मैंने कई तथाकथित भगवें कपड़ों वाली सभाओं में भी रूमी का ज़िक्र देखा और सुना है। वो सिर्फ इसलिए क्योंकि वो पवित्र प्रेम की बात करता है और पवित्र प्रेम की बात सब सुनना चाहते हैं। रूमी कहता है…

ऐ मेरे प्रेम
मैं तुम्हारे संग एक होना चाहता हूँ
मैं हूँ एक पागल
बाँध लो अपने बालों की लटों से मुझको
अगर मैं अपने आप को पूरण समर्पित न करूँ
तो करना शिकायत…

तुम संकुचित हो गए हो
पवित्र पुस्तकों को हाथ में लेकर
आओ और पढ़ो वो किताब
जो मैं अपने दिल में रखता हूँ
चलना सीखो उनके साथ
जो राह जानते हैं …

तुम संगीतज्ञ हो दिव्य हृदय के
भरो मुझे अपने संगीत के साथ
तुम ही तो हो शुक्र की तरह चमकदार
चाँद से भी अधिक रौशन
ऊष्मित करो मुझे अपनी दृष्टि से
ताकि मेरी आँखें
तेरी चमक से भर सकें

यह चमक प्रेम की है, प्रेम जो शुद्ध है, शुद्धता जो सूफीमत का प्रतीक है। सूफी प्रेम की रूहानियत और रहस्य ने सिर्फ हिन्दुस्तानी समाज को ही नहीं, हिंदी साहित्य को भी प्रभावित किया है। हिंदी साहित्य परम्परा में छायावाद इस बात का प्रमाण है। छायावाद का स्तंभ कहे जाने वाले चारों कवियों यानि प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा की बहुत सी कवितायें कब छायावाद से रहस्यवाद में चली जाती हैं पता ही नहीं चलता । इस संदर्भ में भी बीसियों काव्य पंक्तियों के उद्धरण दिये जा सकते हैं लेकिन मेरा उद्देश्य प्रमाण देने से ज़्यादा सूफीधारा के परिणाम की ओर सिर्फ संकेत करना है और परिणाम तो ख़ुद प्रेम ही है । वैसे भी मैं शुरू में ही कह चुका हूँ कि मैं सूफीमत के बारे में कुछ नहीं जानता। बस यही जानता हूँ कि वो प्रेम हैं, ऐसा प्रेम जो परिभाषित नहीं किया जा सकता सिर्फ महसूस किया जा सकता है । ऐसा प्रेम जो सबर में है, शुकर में है, ज़िकर में है । जो आपको ऐसी यात्रा पर ले जाता है जिसमें आप पहले ‘मैं’ को ढूँढ़ते हो फिर मैं को ‘तू’ में लीन-विलीन कर देते हो । ख़ुद से बेगाना, दुनिया से बेपरवाह, सुरूर में सराबोर, अनहद नाद सा पवित्र, स्वभाव से समर्पित, ख़्याल में खालिस, ज़बान से शीरीं और जहान में अमर प्रेम । यानि वो प्रेम जो हिन्दोस्तान के लगभग हर क्षेत्र और हर भाषा में अपनी होंद भी रखता है और हैसियत भी । #SufiPrem_8_Last




इश्क जिंन्हा  दे हड्डी रचिया, रेहन ओ चुप चुपाते  हू
लूं लूं दे विच लख ज़ुबाना, करन ओ गूंगी  बातें हू
 हज़रत  सुल्तान बाहू का ये एहसास आज भी हिंदुस्तान के हर सच्चे प्रेमी को राह दिखाने वाला है। हर प्रेमी का अपने प्रेम में  रूहानियत ढूँढ़ना हमारे आम फ़हम एहसासों में अनजाने सूफी धारा की होंद का ही परिणाम है।
कबीर, मीरा ,बुल्ले शाह और बाहू की बात करने के बाद अब बहुत जायज़ सवाल उठाया जा सकता है कि सूफी- प्रेम हिन्दुस्तानी समाज की रगों में कब और कैसे  उतर गया? अगर किताबी तौर से देखें  तो सूफीमत को इस्लामी रहस्यवाद के साथ जोड़ा जाता है । वो मुसलमान जो घर-दर त्याग कर मस्जिद में रहते थे, आरंभिक सूफी थे। लेकिन तारीखों के हवाले से माना यह जाता है कि  12वीं शताब्दी में हिन्दुस्तान में इस्लामी राज्य की स्थापना के बाद मुल्तान, दिल्ली और लाहौर में सूफीमत की लहर दौड़ गयी । जैसे-जैसे इस्लाम हिन्दुस्तानी मिट्टी  को अपनाता गया ,वैसे-वैसे सूफी प्रेम हिन्दुस्तानियों के दिलों में घर करता गया। मुझे नहीं लगता कि  आज हिंदुस्तान का ऐसा कोई नौजवान है जिसे सूफी शब्द की जानकारी नहीं है। वो जानकारी किस सीमा तक सही या गलत है, यह एक अलग मुद्दा है । आज के युवा का सूफी प्रेम की तरफ झुकाव का मुख्य कारण किसी  हद्द  तक आज की फिल्में भी हैं। फिल्मी संगीत में सूफी गीतों का तो जैसे रिवाज सा हो गया है, इस रिवाज को कौन कितनी इमानदारी से निभा रहा है ये एक अलग बात है । हाल फ़िलहाल की एक फिल्म ने इरानी सूफी कवि रूमी को युवाओं में अच्छा-ख़ासा प्रसिद्ध कर दिया, खासकर रूमी की यह पंक्तियाँ…
गलत और सही के पार
एक मैदान है
मैं वहां मिलूँगा तुझे
#SufiPrem_7



सूफी प्रेम के सूत्र हिन्दोस्तान में निराकार प्रेम या साकार प्रेम की सीमित मान्यताओं से कहीं अलग खड़े हैं । सूफी प्रेम तो है ही शर्त विहीन प्रेम फिर उसे साकार या निराकार के बन्धन में कैसे बांधा जा सकता है? इस प्रेम का सम्बन्ध सिर्फ और सिर्फ पाकीज़गी से है, विशुद्धता से है । इस दृष्टिकोण से मुझे प्रेम दिवानी मीरा भी सूफी धरातल पर खड़ी एक प्रेमिका लगती है ।
ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी मेरो दर्द ना जाने कोए
सूली ऊपर सेज म्हारी सोवन किस विध होए
गगन मण्डल पर सेज पिया की किस विध मिलना होए
ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी…
मुझे नहीं लगता कि मीरा की इस बात में और बुल्ले शाह की ‘इश्क़ असां नाल ऐही कीती’ के मर्म में कोई अन्तर है । दोनों इश्क़-प्रेम में सराबोर हैं, दोनों की हालत कोई नहीं समझ रहा, दोनों को दुनिया की बातें सुननी पड़ रही हैं ।  यहां अपने कथन को और आधार प्रदान करने के लिये मैं बुल्ले शाह की एक और काफी का ज़िकर करना ज़रूरी समझता हूँ…
मेरे घर आया पिया हमरा
वाह वाह वहदत कीना शोर
अनहद बंसरी दी घनघोर
मेरे घर आया पिया हमरा
 #SufiPrem_6



इश्क़ असां नाल ऐही कीती लोक मरेंदे ताने
दिल दी वेदन कोई ना समझे अन्दर देस बेगाने
ये बेगानगी और परायापन सिर्फ बाबा बुल्ले शाह को ही नहीं होता बल्कि आज भी हर उस इन्सान को महसूस होता है जो प्रेम की पीड़ा सह कर प्रीतम की गली में जाना चाहता है । प्रेम का सूफियाना और फ़कीराना अन्दाज़ ये जानता है कि प्रेम में पीड़ा है और पीड़ा में ही प्राप्ति है । इस पीड़ा की शिद्दत जानलेवा भी हो सकती है । विशुद्ध प्रेम के पैग़म्बर आदिकाल से विशुद्ध प्रेम के इच्छुकों को ये बात समझाते आये हैं,
जो तैं प्रेम खेडन का चाओ
सिर धर तली गली मोरी आओ
गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज ये वाणी ‘मैं’ से ‘तू’ तक के सफर की पीड़ा का ही बयान है । पंजाब की मिट्टी में सूफी प्रेम का इत्र बाबा फरीद ने भी बिखेरा है, शाह हुसैन ने भी और सुलतान बाहू ने भी । इश्क़ की नमाज़ पढ़ते हुये इश्क़ हक़ीक़ी को सबने सजदा किया है । प्रेम पगे प्रेमी को अक्सर प्रेमिका में ख़ुदा मिला है और ख़ुदा में प्रेमिका या प्रेमी । विशुद्ध प्रेम पुजारी हर दिखावे से परे है, इश्क़ नमाज़ी की इबादत की अदा दुनियावी इबादतों से अलग है ।
आशिक़ पढ़न नमाज़ प्रेम दी जिस विच हरफ ना कोई हू
जीभ ते होंठ ना हिल्लन बाहू खास नमाज़ी सोई हू
इन शब्दों में बताया है सुलतान बाहू ने कि प्रेम की नमाज़ कैसी होती है । मुझे हमेशा यह महसूस हुआ है कि सूफीमत अपने वैचारिक धरातल पर इतना व्यापक है कि पूरी कायनात को अपने भीतर समेट लेता है । सूफी प्रेम के सूत्र हिन्दोस्तान में निराकार प्रेम या साकार प्रेम की सीमित मान्यताओं से कहीं अलग खड़े हैं ।#SufiPrem_5



बताते हैं कि जिस प्रेम में  ” मैं” नहीं वो सूफी प्रेम है । पंजाब की मिट्टी में जो सूफियाना महक है वो इसी रंग और प्रेम के कारण ही तो है । पंजाब की प्रेम कहानियां इसी रंग से तो ओत -प्रोत हैं। जिनमें मैं से ज्यादा तू की चिंता है । मैं फकीरी में भी राज़ी है-फाकों में भी, अगर तू खुश है । यह तू “खुदा” भी है “खुदा जैसा कोई” भी । इसीलिए तो बाबा बुल्ले शाह भी कहते हैं कि  “तुहियों हैं मैं नाहीं वे सजना’ । समाज ने हमेशा प्रेम को मर्यादा में बांधने की कोशिश की है ,वो समाज चाहे आज का हो या आज से  पाँच सौ या हज़ार साल पुराना । समाज ने झूठी इज़्जत के मकबरे पर सच्चे प्रेमियों की बली दी है, रस्मी रिश्तों में जकड़ा हुआ समाज रुहानी रिश्तों को शक़ की नज़र से देखता रहा है और देखता रहेगा । धर्म के छलावे में मर्म तक किसी भी युग का समाज ना पहुँचा है और ना ही कभी पहुँचेगा । #SufiPrem_4



यह सूफी प्रेम है जो हिन्दुस्तान की रगों में ख़ून की तरह उतर गया।
कब चिश्तिया, नक्शबन्दिया, कादरिया या सुहरवर्दिया सम्प्रदाय सूफीमत को हिन्दुस्तान में ले आये इसका तारीखों के हवाले से जो जवाब इतिहास देता है वो मेरे विचार से सही नहीं है । वो सूफी संप्रदाय के आगमन की तारीखें हैं। सूफी विचारधारा की हिन्दुस्तान के दिलों पर छाप की तारीखें नहीं हैं । कब हिन्दुस्तानी दिल यह महसूस करने लगा कि…
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
प्रेम बटी  का मदवा पिलाइके
मतवाली कर दीनी रे मोसे नैना मिलाइके…
इन पंक्तियों के रचियता हज़रत अमीर खुसरो को किस पल सूफी प्रेम की अगन ने जला कर कुंदन बनाया, कौन जानता है? कब उन्हें लगा कि…”तू मुन  शुदी  मुन तू शुदम, मुन तन शुदी तू जाँ शुदम”… यानी तू मैं हो गया मैं तू हो गया,मैं तन हो गया तू जान हो गया । प्रेम जब-जब सांसारिक घेरों  से निकल कर सूफी दायरे में गया तो यही तो हुआ। शुरूआती दौर में सूफी प्रेम ज़रुरत भी था, इबादत भी । हालांकि मेरे विचार से प्रेम इबादत का ढंग नहीं है, ढंग की इबादत है…जो न विधि -विधान से बोझल है और न तौर-तरीके से वाकिफ। यह उन्मुक्त मन की प्रेम गगन में उड़ान है, अपने अस्तित्व का  अर्पण है और रूह का समर्पण है। यह हज़रत अमीर खुसरो  के लहजे में “आज रंग है” । हिन्दुस्तान की हिन्दवी में रंग । लेकिन यह वहीं तक सीमित नहीं है बल्कि इसकी रंगीनी में पूरा हिन्दुस्तान है। पंजाब की धरती पे पंजाबी में बात करते हुए जब बाबा बुल्ले शाह लिखते हैं…
जो रंग रंगिया गूढ़ा रंगिया
मुर्शिद वाली लाली ओ यार
अहद विच्चों अहमद होया
विच्चों मीम निकली ओ यार
तब वो खुसरो वाले प्रेम की ही बात करते हैं।#SufiPrem_3



आज मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैं “गेहूँ” हूँ ; सूफी और प्रेम एक चक्की के दो पाट । उन पाटों को समझने की कोशिश में गेहूँ पिस ज़रूर रहा है लेकिन समझ नहीं पा रहा । मेरा दावा है कि मैं सूफी प्रेम को नहीं समझता लेकिन मेरा यह भी दवा है कि मैं सूफी प्रेम का दिवाना  हूँ । वो प्रेम जो निर्मल है, निश्छल है, निस्वार्थ है । वो प्रेम जो देह के दस्तरख़ान पर दावत नहीं बल्कि रूह के रेगिस्तान में रवानगी है, वो प्रेम जो ज़मीन से उठ कर आसमान तक जाता है। वो प्रेम जो ख़लिश से ख़्वाहिश बनता है, ख़्वाहिश से कोशिश बनता है, कोशिश से किवायत बनता है और किवायत से करामात । वो प्रेम जो ख़ुशी और ख़ुमारी की मल्कियत आपको सौंप देता है । वो प्रेम जो कभी पंजाब में  नज़र आता है ,कभी इरान या अफगानिस्तान में ,कभी किताब में नज़र आता है,कभी विचार या इंसान में। यह सूफी प्रेम है जो हिन्दुस्तान की रगों में ख़ून की तरह उतर गया। #SufiPrem(Irshad_Kamil)




“मैं”  से “तू” तक चलते चलते
इक ऐसा मोड़ भी आता है
जब मैं ही “मैं ” को खो देता है
और “तू” ही “तू’ रह जाता है… अब तक मैं सूफी प्रेम को इतना ही समझ पाया हूँ । इससे आगे समझने का शायद ज़िन्दगी भर दावा नहीं कर पाऊंगा क्योंकि जब भी इससे आगे कुछ सोचने का विचार मन में आता है, तो मन मुझसे सवाल करता है कि क्या तुमने ‘मैं’ से “तू” तक के सफ़र की  शुरुआत कर ली?  क्या ‘मैं” से “तू” तक के सफ़र के सभी पड़ाव समझ में आ गए? क्या जान गए कि “मैं” और “तू” के  बीच दूरी क्यों है? क्या किसी को समझा  सकते हो कि  “मैं” क्या है और “तू” क्या? क्या यह पता चल गया कि प्रेम में फना होना जज़्बा है या हुनर है? प्रेम का दर्द सज़ा है या इनाम है? प्रेम बगावत सिखाता है या इबादत सिखाता है? प्रेम “तुम ” से “तू” तक का सफ़र है या “मैं” से “मैं” तक का? मैं अक्सर अपने आप को ऐसे सवालों के जंगल में चुप चाप खड़ा पाता हूँ। ऐसा लगता है जैसे सूफी- प्रेम को समझने की कोशिश करने का गुनाह करने के कारण किसी ने मेरे शब्द छीन  लिए हैं । #SufiPrem(Irshad_Kamil)



ज़िन्दगी में ‘बहुत कम’ दिन ऐसे होते हैं

जब आपके पैरों तले से ज़मीन खिसकती है।

ज़िन्दगी उन्हीं ‘बहुत कम’ दिनों में होती है।




आतिश फिशां* की तरह बना है मेरा वजूद,
मैं जितना अयां** हूँ फ़क़त उतना ही नहीं हूँ।

*ज्वालामुखी **ज़ाहिर

Aatish fishañ ki tarah bana hai mera wajood,

Main jitna Ayañ hun fakat utna hi nahin hun.

 




राजनैतिक लड़ाइयाँ धर्मों की लड़ाइयाँ नहीं होती, राजा बनने या बने रहने की इच्छाओं की लड़ाइयाँ होती हैं।




चलो ख़फ़ा हो जाना हमसे सच तो कहना बनता है
तुम जैसों का हम जैसों के दिल में रहना बनता है।

Chalo khafa ho jaana humse sach to kehna banta hai

Tum jaison ka hum jaison ke dil mein rehna banta hai…




जो हवा में है

ख़त्म नहीं होगा,
अमर होने की शर्तें पूरी करता हुआ
तुम्हारा ख़्याल !



Hope is nothing but a Desire with Belief.




कहें हम ज़िन्दगी जिसको वो हर सूरत रवानी है…कभी पानी में है पत्ता कभी पत्ते में पानी है




घर की खेती सूख न जाये इस सावन में सूखे से…

पी की बात में ताप तो है पर जाने क्यों हैं रूखे से




One DAY was fixed for the SUN bath…that day was/is called SUNDAY




FRIENDS…means folks whom we meet when FRI(day) ENDS




समाज जिन ख़तरों से सुरक्षा प्रदान करता है, उन ख़तरों के लिए ज़िम्मेदार भी समाज ही होता है




समाज हमें मुखौटे लगाने पर मजबूर करता है…और फिर उन मुखौटों पर ऐतराज़ भी करता है




In the Dictionary of the SOCIETY, the real meaning of words are altered as per the convenience and the whims and fancies of the SOCIETY




समाज सुनता नहीं सिर्फ बोलता है




समाज के परम्परागत नियमों की परवाह न करना अपनी आज़ादी की ओर पहला कदम उठाना है…




SOCIETY compels us to LIE, even when we want to say the TRUTH.




SOCIETY is nothing but your own Relatives…Rest neither bother to U nor about U




शर्म की चादर खोल उतारूँ…

तन की मिरचें उसपे वारूँ…

होंठों के शहतूत खोलके…

हक़ यार का नाम पुकारूँ




वो कौन था जो झुका नहीं, जो कट गया चुपचाप से…

वो शख्स मैं था बोलना, कोई पूछ ले जो आपसे




NOTHING 😉




तू ही मौला तू ही माही, तू सफेदी तू सियाही बन्दे…

तू ही मर्ज़ी तू मनाही, तू गुनाही-बेगुनाही बन्दे




मुझसे बेहतर तुझसे बेहतर प्यार किसे करना आता है…

रोज़ दुखों की दौलत पाकर कौन अमीरी दिखलाता है




बंद लब कुछ बिन कहे तू खोल दे…

ज़िन्दगी में मुस्कराहट घोल दे




छोटी छोटी बातों पे भी हँसता हंसाता हूँ…

आईने से भी है दोस्ती…

मेरे हिस्से खुशियाँ हैं, चाहतें हैं, सपने हैं…

हाथों की लकीरें बोलती




कामिल जाने किस तरह क्या होता भगवान्…

भगवन बोले मैं ही तू पहले ख़ुद को जान




कामिल बोल फ़कीर का मांगे सब की ख़ैर…

न काहू से दोस्ती न काहू से बैर




कामिल पी ने मोह लिया, नेह का डारा रंग…

राम करे इस मोह से, कभी न हो मोहभंग




PEE LOON…awarded listner’s choice BEST FILM SONG of the year in BIG STAR IMA Awards. Thank U very Much Friends n Listners of Big FM for Ur Wishes n Votes.




कामिल ये संसार है दो अक्षर में गुम…

पहला अक्षर मैं हुआ दूजा अक्षर तुम




कामिल प्रशन पहाड़ सा, सच्चा प्रीतम कौन?…

लेकिन उत्तर सरल जो, समझे तेरा मौन




कामिल किस्से प्रेम के ज्यों वीणा के तार…

छेड़ो तो मन-प्राण में कर देते झंकार




आजा तुझको रुसवा कर दूँ…

तुझको भी मैं मुझसा कर दूँ




जब भी मुझको मिलेगा वो तो मिलके गले यूँ रोयेगा…

जितने होंगे ख़वाब पुराने सब अश्कों से धोएगा




जिसने इश्क़ का अलिफ़ ना जाना चाहत का दीवान* लिखे…

ख़ुद को लिखता पाक ख़ुदा सा दुनिया को शैतान लिखे…

वक़्त अज़ानों का ना जाने नफल** नमाजें भूल गया…

इश्क़ मसीहा जो बन बैठा दिल का गलत कुर’आन लिखे

*Anthology, **prayers to make Almighty Happy




रस बुंदिया नयन पिया रास रचे…

दिल धड़-धड़ धड़के शोर मचे…

यूँ देख सेक सा लग जाए…

मैं जल जाऊं बस प्यार बचे




जो सामने है सवाल बनके…

कभी मिला था ख़याल बनके…

देगी उसे क्या मिसाल दुनिया …

जो जी रहा हो मिसाल बनके




जिस पल तेरे पास आया…हर इक मौसम रास आया




Old FRIENDS are like old WINE…They give a HIGH




POETS n PROPHETS can never be understood clearly, correctly n exactly




LOVE is a dictionary not a text book.




गुनगुनी सी धुप के फूलों में हैं गरमाहटें …

सुन रहा हूँ मैं तुम्हारी आमदों* की आहटें…

जानता हूँ तुम भी झूठे हो सुकून-ओ -चैन से…

क्यों तुम्हारी राह पे ठहरी निगाहें न हटें

[* AAMAD=AANA]




तेरी याद के रस्ते पे हर गीत मेरा चल देता है…

न थकन गीत को होती है न ख़तम ये रस्ता होता है…




घूंघट के पट खुले पिया के आगे रे…

फिर उम्र की लम्बी रात पिया संग जागे रे




फूल के चेहरे पे सलवट देख के…

क्यों तेरे होंठों की याद आ जाये है?




तड़प गया हूँ पल दो पल की राहत को…

किस सूली पे टांगूं अपनी चाहत को




डूब रही है वफ़ा की कश्ती लम्हा लम्हा तेरे दर…

फिर से इक इलज़ाम जफा का आ जायेगा मेरे सर




दर्द की तेरे तीखी धार…

काश काट दे यूँ इस बार…

फिर जुड़ने की आस मिटे…

इतने टुकड़े करदे यार




किस दर्द के बेल और बूटे हैं…

जो दिल की रगों में फूटे हैं…

कोई झूठ ही आकर कह दे रे…

ये दर्द मेरे सब झूठे हैं




दिल के रिश्ते सभी तोडना मेरे बस की बात नहीं…

चाँद की ख़ातिर ज़मीं छोड़ना मेरे बस की बात नहीं…

ले देकर इक जान बची है लेजा गर कुछ काम आये…

तुझको ख़ाली हाथ मोड़ना मेरे बस की बात नहीं




मुद्दत के बाद उसने जो आवाज़ दी मुझे…कदमों की क्या बिसात थी सांसें ठहर गयीं




ख़ुद ही कीं चेहरे पे अपने दर्द की नक्काशियां…ग़ौर से देखो हमारे हुनर की बारीकियां




THANK U very much friends for your wishes, “Once Upon A Time In Mumbai” declared BEST ALBUM-Listener’s Choice, Mirchi Music Awards.




When You Are Not Doing Something…Then Too You Are Doing Something…To Do Something.




कोहरे की सफेदी में लिपट गया शहर मेरा…

रंग भी उधर के हैं यार है जिधर मेरा




यूँ ही नहीं हुए हैं हक़ में रुख हवाओं के…

दिल ने लिखे हैं बरसों ख़त आपको दुआओं के…




सांवली सी रात हो चाँदनी का साथ हो…

बिन कहे बिन सुने बात हो तेरी मेरी…

नींद भी हो लापता चाँद हो ये बोलता…

चाहतें हैं यही अनकही तेरी मेरी…




शहर घूमके दिलबर का,

दिल उदास घर आता है…

इश्क़ मुश्क़ बेमानी है,

ज़ेहन रोज़ समझाता है…




सब आइना इमारतें महफूज़ थीं बड़ी…

जब तक तेरे अलफ़ाज़ की बारिश न हुई थी…




Its Hard To Prove Your Undying Love…Its Still Harder To Show The Death Of Your Love.




Time Is Like A Water Spring…With Flow It Crystallizes or Clears Each Stone Of Doubt.




उदासी छोड़ ना पाए मेरा पीछा वो ये सोचे…

भरी दुनिया है और देखो मेरा शायर अकेला है…

मुसाफिर राह से यूँ तो गुज़रते जा रहे “कामिल“…

किनारे पे खड़ा इक मील का पत्थर अकेला है…




आईना टूट गया देख के सूरत तेरी…

मैंने पहले ही कहा था कि संवर मत जाना…




Wishes Are Like GIFTS Wrapped In Words, With A Guarantee Of Return GIFT Voucher Of Wishes…Merry X’mas to ALL.




ठहर गयीं कुछ बातें तेरे होंठों पे…

जैसे ओस की बूँदें ठहरें फूलों पे…

ए दिल आस ना छोड़ छाँव भी आएगी…

आयीं हैं जो आज कोंपलें पेड़ों पे…






We Meet Countless People In LIFE…But Always Keep On Postponing A Meeting With Our REAL Self.




पिया नदी की कलकल जैसा…

वो मखमल वो मलमल जैसा…

वही सुखों का सागर भी है…

वही दुखों की दलदल जैसा…

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Piya Nadi Ki Kalkal Jaisa…

Vo makhmal Vo malmal Jaisa…

Wahi Sukhon Ka saagar Bhi Hai…

Wahi Dukhon Ki Daldal Jaisa…




तेरी पलकें मेरे काँधे से जो बातें करती हैं…

बातें वो ही रात की रानी से ये रातें करती हैं…




दर दर भटके दिल दरवेस…

घर भी लागे अब परदेस…





रात काँधे पे खिले, जब तेरे होंठों के गुलाब…

चाँद साक़ी सा लगा, चांदनी कच्ची सी शराब




सर्द रातों में तेरी याद की चादर लेके…नींद आती है तेरे प्यार के मंज़र लेके…प्यास थोड़ी थी मेरी झील के पानी जितनी…होंठ सूखे ही रहे सात समंदर लेके…




Our ACTIONS Are Defined By The PERCEPTION Of Others.




Claim of LOVE is like claim of PROPERTY. Whom U love is not your property but U are the property of your BELOVED.




We Have More Than One HEART. One Bleeds One Doesn’t Want To Bleed…One Lies To Us, One Speaks The Truth Only…One Loves & The Other Analysis Love.




ज़िन्दगी रास्ते में खो जाये मोड़ ऐसा भी ना आये कोई…

मैंने खोया मुझे है मुश्किल से या ख़ुदा ढूँढ ना लाये कोई




Why Pain Increases When One Thinks Of Pleasures…




Possessiveness Is Nothing But A Form Of EGO Manifestation.