वो चला गया
वो चला गया
जब डेढ़ पहर की धूप तेरे
दरवाज़े पे आ दस्तक दे
और हवा में लिपटे वो परदे
जब पूछें मेरे बारे में
तो कहना की वो चला गया…
घर ख़ामोशी की ख़ुशबू से
जब इतर की बातें करता हो
इक शौक़ बड़ी बेसबरी से
कुछ सबर की बातें करता हो
और याद के कोने कोने से
इक महक संदली आती हो
या खिड़की भर बदली कोई
मुझे नज़र से छूना चाहती हो
तुम कहना की वो चला गया…
अब शहर-शोर से दूर कहीं
मेरे अंदर आकर बसा है वो
कोई चाहकर खोल न पायेगा
इस तरह रगों में कसा है वो
तुम सब उसको न याद करो
उस की सब यादें मेरी हैं
क्यों तुम सबने फिर यूँ मिलकर
उस भरम की बातें छेड़ी हैं
कि है या नहीं है इश्क़ मुझे
वो भरम कभी का चला गया…
–=–
Vo Chala Gaya
Jab dedh pahar ki dhoop tere
Darwazey pe aa dastak de
Aur hawa mein lipte vo parde
Jab poochhein mere bare mein
To kehna ki vo chala gaya…
Ghar khamoshi ki khushboo se
Jab itar ki baatein karta ho
Ik shauk badi besabri se
Kuchh sabar ki batein karta ho
Aur yaad Ke kone kone se
Ik mahak sandali aati ho
Ya khidki bhar badli koi
Mujhe nazar se chhoona chahti ho
Tum kehna ki vo chala gaya…
Ab shehar-shor se door kahin
Mere ander aakar basa hai vo
Koi chah kar khol na payega
Iss tarah ragon mein kasa hai vo
Tum sab usko na yaad karo
Uski sab yaadein meri hain
Kyon tum sabne phir yun milkar
Us bharam ki baatein chhedi hain
Ki hai ya nahin hai ishq mujhe
Vo bharam kabhi ka chala gaya
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8 responses to “वो चला गया”
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marvellous,,,,lost my word
kaafi lambe arse baad, aap aap hue hain!
kitni bhi mubarkbaad doon kam hai!
bahut pyari hai ye nazm irshaad bhai !
… Aadzab
Wonderful as always irshadji.
mind blowing…awesome…full of passion and love…..gr8 as usual from U…
chala gaya! ye jo ”raft” aor ” bood”hai na? ye bahot dard deta hai ”chala gaya”kahna aasan nahin hai irshad sahab !ragain khinchne lagti hain !aap ki nazm ki is line ne dil nikal liya main ne jaana aor chalna mahsoos kiya hai
”main ne usko kho ke aakhir wo saza pai ke bus……….!”
जब कोई रगो में बस जाये तो वो जा कर भी कहीं नहीं जाता और यादें इस कदर ताज़ी होती हैं कि वातावरण में वक्त का गुज़रा पल पता नहीं चलता…सारी स्मिर्तियाँ इस कदर आवा जाही करती रहती हैं जैसे सब कुछ अभी अभी की बात है…पहले भी धूप आती होगी आगे भी आयेगी बस उनके आने के साथ उसका होना बचा रहेगा जिसे भरने के लिये वक्त हमेशा उसे याद रखेगा…हवा में लिपटे पर्दे पूछेंगे… खामोशी उसकी हसीं माँगेगी और घर उस हसीं की खुशबू…उसे छू लेने के लिये एक टुकड़ा बदली राह ढूढँती दिखेगी…हर दिन सब्र का इंतहान होगा कि वो इसी वक्त तो आता था…आता ही होगा…चले जाने का सच इंतज़ार की दुनिया वाले नहीं स्वीकार करते…इसी लिये तो उसकी एक एक याद को इतनी बारीकी से और विस्तार से स्मिर्तियों में सहेज लेते हैं कि चले जाने को याद करो तो भी याद आते हैं और हुआ करता था को याद करें तो भी याद आते हैं और कहीं न कहीं मन के कोने में एक सम्भावना बची रहती है कि वो फिर आयेगा इसलिये भी उसका होना उसी ताज़गी से याद रहता है…उसकी यादों पर दावेदारी भ्रम को भी एक चेहरा देती है कि वो साथ है… और यहाँ तो भ्रम की गुन्जाइश ही नही है कि ये इश्क है…इतना कुछ याद रख कर किसी को अपनी ज़िन्दगी से चाह कर भी विदा नही किया जा सकता…वो रहेंगे… अगर शमशेर की पक्तियाँ याद करें तो…
“मेरी यादों में बसी है
इशारे की तरह
तेरे नाम की
छोटी सी, नन्ही सी, प्यारी सी,
तिरछी सी स्पेलिंग”….
simply superb sir..a love going from physicality to soul existence.. i guessed missed a lot of blogs while i was away on vacation..
Dear Irshad,
Have been drawn for a while by your choice of earthy metaphors that make the ordinary special. This was a delectable piece that weaves the story of progression, it transcends to divine love like a sufi mystic turns in ecstatic joy and it takes him into an upward spiral of exaltation! Lovely write!